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शराब ने निकम्मा कर दिया… अंग्रेजों से साठगांठ की, जुआ खेला तो जेल हुई… पढ़ें कर्ज से दबे गालिब के किस्से

ईश्क ने गालिब निकम्मा कर दिया, वर्ना हम भी आदमी थे काम के। मिर्जा गालिब अपनी जिंदगी के 50 साल से अधिक का वक्त दिल्ली में किराए के मकान में गुजारे। गालिब की पुण्य तिथि पर उनकी जिंदगी के कुछ अनछूए पहलुओं की चर्चा वरिष्ठ पत्रकार पी मार्कण्डेय की कलम से…

मिर्जा असदुल्लाह बेग खान उर्फ मिर्जा गालिब अपने समय का ही नहीं, हर युग का यह बेहतरीन शायर जीवन भर अभावों में रहा और मौत के वक्त तक कर्जदार बना रहा. मौत से पहले कर्ज चुक जाए पर ऐसा नहीं हो पाया और 15 फरवरी 1869 को हमेशा के लिए आंखें मूंद लीं.

27 दिसंबर 1797 ईस्वी में आगरा के कला मंदिर में जन्मे गालिब के पिता उज्बेकिस्तान से आए थे. समृद्ध परिवार के गालिब ने समय के साथ उर्दू, तुर्की, अरबी, फारसी और हिन्दी भाषाओं पर पकड़ बनाई और 11 साल की उम्र में ही लिखना शुरू कर दिया था. उनकी शादी लोहारू के नवाब की भतीजी से हुई थी.सिर्फ 13 साल की उम्र में गालिब दिल्ली चले गए और ताजिंदगी वहीं रहे. यह और बात है कि दिल्ली में गालिब एक-एक कर अपना सब कुछ गंवाते चले गए. सात बच्चे हुए पर कोई भी जीवित नहीं रहा. शराब और जुए की ऐसी लत लगी कि कर्जदार होते गए.

हमेशा किराए के मकान में रहे. चांदनी चौक की बल्लीमारान की कासिम गली में जिस हवेली को आज गालिब की हवेली के रूप में जाना जाता है वह भी उन्हें एक प्रशंसक हकीम ने दी थी.लिखने-पढ़ने वाले गालिब ने अपने लिए कभी किताबें भी नहीं खरीदीं. अला माशाल्लाह नाम के एक व्यक्ति था जो दिल्ली में दुकानों से किताबें किराए पर लेता था और लोगों के घरों तक पहुंचाता था. पढ़ने के बाद लोग किराए के साथ किताबें लौटा देते थे. गालिब उनके स्थायी ग्राहक थे.

गालिब का एक और शेर, शराब पीने दे मस्जिद में बैठकर, या वो जगह बता जहां खुदा नहींबताता है कि वह शराब के कितने बड़े शौकीन थे. बताया जाता है कि गालिब को एक दिन शराब नहीं मिली तो नमाज पढ़ने मस्जिद चले गए. वहां उनको एक शागिर्द मिला, जिसने शराब की बोतल दिखा दी तो गालिब बिना नमाज पढ़े ही मस्जिद से लौट आए. यही नहीं, गालिब की कई अंग्रेज अधिकारियों से सिर्फ इसीलिए पटती थी, क्योंकि अंग्रेजी छावनियों में अच्छी से अच्छी शराब मिलती थी. मेरठ की छावनी से तो गालिब ने अपने लिए नियमित शराब सप्लाई की व्यवस्था कर ली थी.

गालिब को जुए की लत थी और जुआ खेलते अंग्रेजों ने उन्हें कई बार पकड़ा था. चूंकि मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर गालिब के फैन थे तो उनके कहने पर गालिब को छोड़ दिया जाता था.

एक बार ऐसा हुआ कि अंग्रेजों ने बादशाह की भी नहीं सुनी और मिर्जा गालिब को छह महीने की जेल की सजा हो गई. सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह है कि गालिब कभी दिल्ली से दूर गए ही नहीं. अंग्रेजों से अपनी पेंशन बंधवाने के लिए केवल एक बार कोलकाता गए थे. तब गालिब करीब दो साल दिल्ली से दूर रहे. उसी दौरान कुछ दिन लखनऊ में भी बिताए थे.

रामपुर के नवाब से मिलती थी सौ रुपये महीने की मदद

शराब और जुए ने सचमुच गालिब को निकम्मा कर दिया था. मिर्जा गालिब को जीवन के आखिरी दिनों में रामपुर के नवाब हर माह सौ रुपये की पेंशन देते थे. यह भी उन्हें पूरा नहीं पड़ता था और कर्ज बढ़ता ही जा रहा था. एक बार गालिब ने नवाब को पत्र लिखा कि कि मेरी हालत बदतर हो गई है. उधारी चुकाने के लिए आठ सौ रुपए चाहिए पर नवाब ने ध्यान नहीं दिया. मरने से करीब महीने भर पहले गालिब ने फिर नवाब को चिट्ठी लिखी जिसके जवाब में नवाब ने पेंशन के ही सौ रुपए भेजे. वह रकम गालिब को अपनी मौत से सिर्फ एक घंटा पहले मिली थी.

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