जब हम अयोध्या को समझने की कोशिश करते हैं तो अयोध्या के साथ ही तीन नाम एक दूसरे से गूथे हुए मिलते हैं- जिनमें मयार्दा पुरुषोत्तम राम, अयोध्या और सरयू। अयोध्या को समझने के श्रीराम का होना जरुरी है, क्यों कि श्रीराम ही अयोध्या हैं, और अयोध्या ही श्रीराम। सृष्टी की व्यवस्था को ठीक करने के लिए भगवान विष्णु ने कई अवतार लिए हैं। जिसमें मत्स्य, कूर्म, नृसिंह अवतार आदि धारण किए जबकि श्रीराम और भगवान परशुराम के रुप में उन्होंने अंशावतार लिया है, जिसमें उन्होंने अपनी चार भुजाएं प्रगट नहीं किया है।
श्रीरामचरित मानस में तुलसी दास लिखते हैं कि
सो अवसर विरंचि जब जाना, चले सकलि सुर साजि विमाना।
गगन विमल संकुल सुर जूथा, गावहिं गुन गंधर्व वरुथा।।
(श्रीरामचरित मानस, बालकांड)
भगवान विष्णु के श्रीराम रुप में अयोध्या में अवतार ग्रहण करने से पहले ऋषि, मुनि, तपस्वी अयोध्या पहुंच जाते हैं और घनघोर तपस्या करते हैं। उनकी तपस्या से अयोध्या में सकारात्मक उर्जा की सघनता बढ़ जाती है। जिसके कारण अवतार का मार्ग प्रशस्त होता है। चैत्र रामनवमी को भगवान राम का जन्म अयोध्या में होता है और धर्मग्रंथों के अनुसार श्रीराम का जीवन चरित आरंभ हो जाता है।
आचार्य राजेश ठाकुर कहते हैं कि भगवान राम सूर्यवंशी थे और इस वंश के प्रथम महाराजा मनु थे। वाल्मीकि रामायण से लेकर हमारे पुराणों में वर्णन है कि महाराज मनु की 65 वीं संतति के रुप में भगवान राम ने जन्म लिया था। भविष्य पुराण का उल्लेख करते हुए वह कहते हैं कि प्रतिसर्ग पर्व में श्वेत वाराह नामक कल्प में ब्रम्हा जी के मौन दिन में सुप्त मूहूर्त में वैवस्वत मनु का जन्म हुआ था। मनु ने सरयू नदी के तट पर सौ सालों तक कठोर तप किया जिसके बाद उनको इक्ष्वाकु नाम के पुत्र पैदा हुआ। इक्ष्वाकु के पुत्र विकुक्षी हुए जो घनघोर तपस्या करते रहे। इसके बाद रिपुंजय का जन्म हुआ जिनके पुत्र का नाम कुकुत्क्षथ बताया जाता है।
महाराज मनु की संततियों में विंबगशय, अर्दनाम, भद्राख, युवननाश्च, सत्वपाद, श्रवस्थ, वृहदस्व, कुवलयावश्यक, भिकुम्भक, संकटाश्व, प्रसेनजीत, तद्रणाश्व, मान्यता, पुरुकुत्स, चिशतश्व, अनरणय का नाम विशेष रुप से उल्लेखनीय है।
प्राचीन इतिहास की पुस्तकों में एकमत है कि अयोध्या सूर्यवंशी सम्राटों की राजधानी रही है। संस्कृत प्राचार्य चंद्रमोहन शुक्ल कहते हैं कि सूर्यवंश में ही प्रतापी राजा रघु हुये, जो महाराज दिलीप के पुत्र थे। राजा रघु से यह वंश रघुवंश कहलाया। इस वंश मे इक्ष्वाकु, ककुत्स्थ, हरिश्चंद्र, मांधाता, सगर, भगीरथ, अंबरीष, दिलीप, रघु, दशरथ, राम जैसे प्रतापी राजा हुये हैं। रघुवंशियों के कुछ राजाओं का वर्णन रघुवंशकाव्य में दिया गया है।
भगवान राम के पूर्वज
भगवान राम के पूर्वज राजाओं में अनरण्य को सतयुग के द्वितीय चरण का राजा बताया गया है। इन्होंने अ_ाईस सहस्र वर्ष तक राज्य किया था। इसके पश्चात पृषदश्व, हर्तश्व, वासुमान तथा तात्विधन्वा के नाम बताए गए हैं। द्वितीय पाद की समाप्ति पर त्रिधन्वा, त्र्यारणय, त्रिशंकु, रोहित, हवरीत जंचुभुप, विजय, तद्ररूक तथा उसका पुत्र सगर बताए गए हैं। वैवस्वत आदि राजाओं के काल में मणि, स्वर्ण आदि की समृद्धि थी। सतयुग के तृतीय चरण के मध्य में सगर नाम के राजा हुए। वह शिव के परम भक्त थे और सदाचारी भी थे। उस सगर राजा के पुत्रों को सागर कहा जाने लगा।
गीता प्रेस की कल्याण पत्रिका में प्रकाशित लेख के अनुसार भगवान राम के पूर्वज महाराजा दिलीप के पुत्र महाराजा रघु के जन्म की कहानी की है कि राजा दिलीप धनवान, गुणवान, बुद्धिमान और बलवान के साथ ही धर्मपरायण भी थे। वे हर प्रकार से सम्पन्न थे परन्तु कमी थी तो सन्तान की। इस कमी से वे शोक संतप्त भी रहने लगे थे। संतान प्राप्ति का आशीर्वाद पाने के लिए दिलीप को गोमाता नंदिनी नामक गाय की सेवा करने का सुझाव ऋषि-मुनियों द्वारा दिया गया। राजा दिलीप के जीवन का उद्देश्य ही गोसेवा हो गया था। एक बार वे नंदिनी को लेकर जंगल पहुंचे तो वहां एक शेर ने नंदिनी गाय पर हमला कर दिया। गाय को बचाने के लिए और शेर की भूख मिटाने के लिए महाराजा दिलीप ने खुद को शेर के आहार के रूप में समर्पित करने की प्रार्थना की। शेर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर लेता है और उन्हें मारने के लिए छलांग लगता है। इस छलांग के साथ ही वह ओझल हो जाता है। तब नन्दिनी बताती है कि उसी ने परीक्षा लेने के लिए यह मायाजाल रचा था। नंदिनी दिलीप की सेवा से प्रसन्न होकर पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद देती है। राजा दिलीप और सुदक्षिणा को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। इस गुणवान पुत्र का नाम रघु रखा जाता है जिसके पराक्रम के कारण ही इस वंश को रघुवंश के नाम से जाना जाता है। जिस वंश में आगे चलकर प्रतापी राजा दशरथ के महल में भगवान राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्र का जन्म होता है।