सोनिया गांधी का राज्यसभा जाने का फैसला रायबरेली-अमेठी में भावनात्मक नजरिए के साथ ही गांधी परिवार से जुड़ी इन सीटों पर अपना कुछ राजनीतिक असर भी छोड़ सकता है?
रायबरेली छोड़ते हुए सोनिया गांधी ने एक भावुक पत्र के जरिए क्षेत्र की जनता से अपने और परिवार के अटूट रिश्तों का भरोसा दिया है. उन्होंने ससुर फिरोज गांधी के रायबरेली से पहले चुनाव से शुरू हुए इस सिलसिले और फिर सास इंदिरा गांधी से जुड़ाव को याद करते हुए लिखा है कि सास और पति राजीव गांधी को खोने के बाद मैं आपके पास आई और आपने आंचल फैला दिया. तब जबकि अमेठी-रायबरेली में गांधी परिवार के प्रति भावनाओं के ज्वार के उतार और ठंडे होते रिश्तों की चर्चा है, सोनिया ने इस पत्र के जरिए उनमें फिर से गर्मजोशी भरने की कोशिश की है. याद दिलाया है कि दिल्ली का उनका परिवार रायबरेली के बिना अधूरा है और यह उन्हें ससुराल से प्राप्त हुआ है.
असलियत में ये मोदी लहर के 2014 और 2019 के चुनाव थे , जिनसे रायबरेली अछूती रही. उम्र और स्वास्थ्य कारणों से खुद के चुनाव न लड़ने की सूचना देते हुए सोनिया ने लिखा है कि खुद भले सेवा के लिए उपलब्ध न रहूं लेकिन मन-प्राण से आपके साथ रहूंगी. लेकिन क्या सोनिया रायबरेली से परिवार के ही किसी सदस्य की उम्मीदवारी का यह लिखकर संदेश दे रही हैं, ” मुझे पता है कि आप हर मुश्किल में मुझे और मेरे परिवार को वैसे ही संभाल लेंगे जैसे अब तक संभालते आए हैं.”
सोनिया ने 1999 में अमेठी से अपना पहला चुनाव लड़ा था. लेकिन उससे भी पहले अपने पति राजीव गांधी के जीवनकाल में 1981 से ही इन इलाकों से उनका सक्रिय जुड़ाव हो गया था. संजय गांधी की मृत्यु के बाद राजीव गांधी ने 1981 में अमेठी से पहला चुनाव लड़ा था. तब सुल्तानपुर की तीन और रायबरेली की दो विधानसभा सीटें अमेठी संसदीय क्षेत्र में आती थीं.
सोनिया गांधी का ग्रामीण इलाकों से पहला सीधा परिचय अमेठी के ही जरिए हुआ था. राजीव गांधी तो ग्रामीण आबादी से घुल -मिलकर बतियाते थे लेकिन साथ मौजूद सोनिया के रास्ते में भाषा की दीवार बाधक बनती थी. पति के क्षेत्र में दिलचस्पी रखने वाली सोनिया के लिए धीरे धीरे चीजें आसान होती गईं. लम्बे समय तक गांधी परिवार के जनसंपर्क कार्यालय के प्रभारी रहे भोला नाथ त्रिपाठी याद करते हैं कि शुरुआत में राजीव गांधी के मित्र अरुण सिंह की पत्नी नीना सिंह इन ग्रामीण क्षेत्रों में दुभाषिए के तौर पर सोनिया की सहायता करती थीं. 1984 आने तक सोनिया ने राजीव गांधी के अमेठी चुनाव की पूरी देखभाल की जिम्मेदारी संभाल ली. इस बीच वे काम लायक हिंदी बोलने लगीं और जल्दी ही इलाके की खासतौर पर महिलाओं से उनका जुड़ाव – लगाव बढ़ता गया. राजीव गांधी के 1989 और 1991 के चुनावों में सोनिया हर कदम पर उनके साथ थीं.
सोनिया के लिए अमेठी से श्री पेरंबदुर की पदयात्रा
राजीव गांधी के 1991 में दुखद निधन के बाद सोनिया के राजनीति से दूर रहने के फैसले को वापस लेने की मांग लेकर अमेठी के कांग्रेसियों ने अमेठी से श्री पेरंबदुर तक की पदयात्रा की थी. बेशक सोनिया उस समय राजी नहीं हुईं थी लेकिन जब उन्होंने फैसला बदला तो उसके संकेत के लिए अमेठी के मंच को ही चुना. लगभग चार साल के अंतराल पर 20अगस्त 1995 को अमेठी में अपनी पहली राजनीतिक रैली में सोनिया ने प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को निशाने पर लेते हुए कहा था, “आप मेरा गुस्सा समझ सकते हैं. मेरे पति को गुजरे चार साल तीन महीने बीत चुके हैं लेकिन उनकी हत्या की जांच बहुत धीमी गति से चल रही है. राजीव जी की मृत्यु के बाद नेतृत्व में एक वैक्यूम पैदा हो गया है.” तुरंत ही गांधी परिवार के पारिवारिक क्षेत्र की सामने मौजूद भारी भीड़ ने जोर -शोर से जवाब दिया , ” सोनिया लाओ -राव हटाओ.”
अगले प्रत्याशी को करनी पड़ेगी कड़ी मेहनत
1999 में सोनिया ने अमेठी को चुना. प्रतिद्वंदी भाजपा उम्मीदवार डॉक्टर संजय सिंह लंबे अंतराल से हारे. 2004 में राहुल गांधी के लिए अमेठी सीट छोड़कर सोनिया रायबरेली चली गईं. पिछले चार चुनाव से लगातार रायबरेली के वोटर उन पर भरोसा जताते रहे हैं. 2019 के चुनाव जिसमें अमेठी ने भी राहुल गांधी और कांग्रेस से मुख मोड़ लिया , उस चुनाव में उत्तर प्रदेश की इकलौती सीट रायबरेली में कांग्रेस को जीत हासिल हुई. 2024 में क्षेत्र छोड़ने का फैसला सोनिया ले चुकी हैं. इसका क्या प्रभाव पड़ेगा ? लम्बे समय से कांग्रेस से जुड़े राघवेंद्र मिश्र एडवोकेट गांधी परिवार से रायबरेली के रिश्तों को याद करते हैं. कहते हैं कि इधर वे रायबरेली नहीं आ रही थीं लेकिन स्थानीय लोगों को उनके स्वास्थ्य की परेशानियों के चलते शिकायत नहीं थी. मिश्र रायबरेली की जनता के ” सेंटीमेंटल ” होने का जिक्र करते हुए कहते हैं कि अगला प्रत्याशी ऐसा होना चाहिए , जो क्षेत्र में पूरा समय दे सके.
वरिष्ठ कांग्रेसी नेता भोला नाथ त्रिपाठी भी इसी ओर इशारा करते हैं. उन्होंने कहा, “सोनिया जी की मजबूरी थी. उनका राज्यसभा जाने का फैसला सही है. हालांकि इलाके के पुराने कांग्रेसियों को उनकी कमी महसूस होगी. लेकिन अगले प्रत्याशी को कड़ी मेहनत करनी होगी और पूरा समय देना होगा. रायबरेली के वरिष्ठ कांग्रेस नेता राजेश द्विवेदी कहते हैं कि सिर्फ पार्टी के कार्यकर्ता ही नहीं क्षेत्र की जनता भी सोनिया जी के फैसले से मायूस है. उन्होंने और उनके परिवार ने तीन पीढ़ियों से रायबरेली को बहुत कुछ दिया है. एम्स उनकी हमेशा याद दिलाएगा. उनकी मजबूरी हम समझ सकते हैं. रायबरेली उन्हें कभी नहीं भूलेगी. पर रायबरेली को गांधी चाहिए. रायबरेली को जुझारू और ईमानदार नेता राहुल गांधी चाहिए.
सिर्फ बड़े नाम से कुछ नहीं होना !
दूसरी तरफ रायबरेली के वरिष्ठ पत्रकार डॉक्टर सुधीर मिश्र साफ कहते हैं कि गांधी परिवार को लेकर अब पहले जैसा उत्साह नहीं है. याद दिलाते हैं कि 2014 की तुलना में 2019 में सोनिया की जीत का अंतर काफी कम हो गया. 2024 में सोनिया को और कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ता. मिश्र कहते हैं कि अब सिर्फ बड़े नाम से कुछ नहीं होना. नियमित उपलब्ध रहना होगा. काम करना होगा और उसका असर भी दिखना जरूरी होगा. ऑफ द रिकार्ड बातचीत में रायबरेली के कुछ कांग्रेसी नेता प्रियंका को लेकर बहुत उत्साहित नहीं दिखे. क्यों ? सिर्फ चुनाव में वे नजर आती हैं. पब्लिक की तकलीफें – जरूरतें किससे साझा की जाएं ? उनकी आवाज ऊपर उठाने वाला कौन है ? हालांकि अभी प्रियंका की उम्मीदवारी का ऐलान नहीं हुआ है लेकिन पार्टी से जुड़े लोगों की बातचीत संकेत देती है कि चुनाव मैदान में आने पर प्रियंका को वोटरों के साथ अपने वर्करों को भी सक्रिय करने के लिए मेहनत करनी होगी.
रायबरेली में रहते सोनिया का क्या रहा असर ?
सोनिया के रायबरेली छोड़ने के बाद के नतीजों की पड़ताल करते समय जरूरी होगा कि जान लिया जाए कि वे अमेठी -रायबरेली में रहते कांग्रेस के लिए कितनी मददगार साबित हुईं ? किसी क्षेत्र विशेष से पार्टी के शिखर नेता के चुने जाने पर उम्मीद की जाती है कि उसकी उपस्थिति आस -पास के बड़े क्षेत्र पर अपना प्रभाव छोड़ती है. अमेठी -रायबरेली लंबे समय से गांधी परिवार के आभामंडल में रही है. आखिरी बार 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस प्रदेश में खड़ी होती दिखी थी, जब पार्टी को 21 सीटें मिली थीं. 2014 में कामयाबी अमेठी , रायबरेली तक सिमट गई और 2019 में अमेठी भी रूठ गई . उधर विधानसभा के चुनाव दर चुनाव नतीजे और भी खराब रहे. प्रदेश की 403 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस के सिर्फ दो सदस्य हैं और उनमें भी रायबरेली और अमेठी का कोई नहीं है.
सबसे बड़ी चुनौती इकलौती सीट बचाने की
सोनिया के रायबरेली छोड़ने के बाद कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती प्रदेश की इकलौती सीट बचाने की है. यह चुनौती इस लिए और कठिन हुई है क्योंकि अमेठी और रायबरेली से गांधी परिवार के सदस्यों की उम्मीदवारी को लेकर अभी भी असमंजस की स्थिति बनी हुई है. दूसरी ओर भाजपा की जबरदस्त तैयारी है. चूंकि इस परिवार के सदस्य ही इन सीटों से लड़ते रहे हैं , इसलिए किसी अन्य दावेदार के सामने आने अथवा उसके नाम की चर्चा की भी गुंजाइश नहीं बन पाती. इस माहौल ने पहले से ही सुस्त पड़े कैडर का मनोबल और कमजोर किया है. राहुल गांधी की तुलना में प्रियंका गांधी वोटर – वर्कर दोनों से ही बेहतर संवाद बना लेती हैं लेकिन सिर्फ चुनाव में सुध लेने के कारण उनसे लोगों की शिकायतें बढ़ी हैं.